शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

जय हो माननीय उच्चतम न्यायालय की !

जय हो पंच परमेश्वर की ! जय हो न्याय देवी की !! जय हो माननीय उच्चतम न्यायालय की !!! आखिरकार एगो ऐसा जगह है जहां आदिवासी को अभी भी न्याय मिल सकता है. माननीय उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार, 12 जनवरी 2010 को आदिवासियों के हक में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है.

मामला क्या है !?
झारखंड पंचायती राज अधिनियम 2001 और उसमें निहित आरक्षण के प्रावधानों, अर्थात झारखंड अनुसूचित क्षेत्र की पंचायतों में मुखिया के एकल पद को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कर दिया गया था झारखंड पंचायती राज आरक्षण अधिनियम की धारा 21 (बी) में कहा गया है कि अनुसूचित क्षेत्र की ग्राम पंचायत में मुखिया व उप मुखिया के पद आरक्षित रहेंगे. इसी अधिनियम की धारा 40 (बी) में कहा गया है कि अनुसूचित क्षेत्र की पंचायत समिति में प्रमुख व उप प्रमुख के पद आरक्षित रहेंगे.अधिनियम की धारा 55 (बी) में कहा गया है कि अनुसूचित क्षेत्र की जिला परिषद में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष के पद आरक्षित रहेंगे. झारखंड पंचायती राज अधिनियम की धारा 17 (बी) (2) में अनुसूचित क्षेत्र की ग्राम पंचायतों, 36 (बी) (2) में पंचायत समितियों और 51 (बी) (2) में जिला परिषदों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है. इनमें कहा गया है कि ग्राम पंचायत, पंचायत समिति व जिला परिषद में 50 प्रतिशत सीट अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होंगी.पिछड़ी जाति व अनुसूचित जाति को उसकी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलेगा. लेकिन कुल आरक्षण 80 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा.

तो फिर !?
उपर्युक्त आरक्षण के खिलाफ झारखंड उच्च न्यायालय में याचिकाएं दाखिल हुई जिस पर उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त अधिनियम और उसमें निहित आरक्षण के प्रावधानों को असंवैधानिक ठहराते हुए निरस्त कर दिया था. झारखंड उच्च न्यायालय ने सितंबर 2005 में मुखिया पद को आरक्षित करने वाले पंचायत अनुसूचित इलाका विस्तार कानून 1996/ पेसा कानून की धारा 4 [जी] को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि मुखिया का एकल पद आरक्षित नहीं हो सकता क्योंकि इससे सौ फीसदी आरक्षण हो जाएगा जो कि आरक्षण के निर्धारित कानून के खिलाफ है.
झारखंड उच्च न्यायालय के फैसले को आदिवासी बुद्धिजीवियों, केंद्र सरकार और अन्य ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी. सरकार और आदिवासियों की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम, वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन और भुपेंद्र यादव ने खूबसूरत और तर्कसंगत दलीलें पेश कीं.

ऐतिहासिक फैसला
उच्चतम न्यायालय ने आज पंचायत चुनाव संबंधी कानून में संशोधन की संवैधानिक वैधता बरकरार रखी है. मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने झारखंड उच्च न्यायालय के उस फैसले को दरकिनार कर दिया, जिसमें उसने पंचायत अनुसूचित इलाका विस्तार कानून 1996/ पेसा की धारा चार-जी को समाप्त कर दिया था. खंडपीठ ने अधिसूचित क्षेत्र की पंचायतों में मुखिया पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित करने वाले कानूनी संशोधन को संवैधानिक ठहराते हुए यह भी व्यवस्था दी कि उच्च न्यायालय के संबंधित फैसले से प्रभावित आरक्षण के अन्य प्रावधानों की वैधता भी बरकरार रहेगी. खंडपीठ के दो अन्य सदस्य थे न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम व न्यायमूर्ति जेएम पांचाल।
पीठ ने अपने फैसले में कहा, पेसा अधिनियम की धारा 4(जी) और झारखंड पंचायती राज अधिनियम की धारा 21 (बी), 40 (बी) व 55 (बी) के तहत किये गये आरक्षण के प्रावधान संविधान सम्मत हैं. झारखंड पंचायती राज अधिनियम की धारा 17 (बी) (2), 36 (बी) (2) व 51 (बी) (2) भी संविधान सम्मत हैं. अदालत ने झारखंड उच्च न्यायालय के उपरोक्त प्रावधानों को असंवैधानिक ठहराये जाने के फ़ैसले को अमान्य करार दिया है. कहा, संसद ने पेसा अधिनियम 1996 अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों की रक्षा की वजह से पारित किया था. इसलिए झारखंड पंचायती राज अधिनियम में एकल पदों का आरक्षण विशेष परिस्थितियों में संविधान के अनुच्छेद 243-एम (4)(बी) के तहत मान्य है.

अंत में,
इस सारे प्रकरण में पिछ्ले पांच बरसों से उच्चतम न्यायालय में संघर्ष करते आ रहे संताल परगना के जुझारू आदिवासी बुद्धिजीवी विक्टर कुमार मालतो का योगदान भी सराहनीय रहा.

और भी,
लड़ाई तो अभी बस शुरूए हुआ है. प्रतिक्रियावादी दिकुओं ने आदिवासियों का प्रतिकार करने का ठान लिया है. धमकी भी दे रहे हैं और हास्यापद दावे भी कर रहे हैं. भाइयों, घबराना नहीं है, सब मिलकर मुक़ाबला करेंगे.

पूरा ऐतिहासिक फैसला नीचे देखें:

http://judis.nic.in/supremecourt/imgs.aspx

1 टिप्पणी: